Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



97 . एकान्त वन में : वैशाली की नगरवधू

उस एकान्त वन में गर्भ में स्थापित इस निर्जन कुटी में , दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में देवी अम्बपाली एकाकिनी उस कुटी के मध्य में स्थापित शिलाखण्ड पर बैठी कुछ देर एकटक उस दिव्य वीणा को देखती रहीं ।

वह गत वर्ष की उस रहस्यपूर्ण भेंट को भूली नहीं थीं , जब कौशाम्बीपति उदयन रहस्यपूर्ण रीति से अम्बपाली के क्रीड़ोद्यान में पहुंचे थे। उनका दिव्य रूप, गम्भीर मुखमुद्रा और अप्रतिम सौकुमार्य देखकर अम्बपाली चित्रखचित - सी रह गई थीं और उनके इंगित पर इस वीणा के प्रभाव से अवश होकर उन्होंने अपार्थिव नृत्य किया था । पहले वह नृत्य के लिए तैयार नहीं थीं , परन्तु जिस समय वह अमोघ वीणा तीन ग्रामों में उस नररत्न ने बजाई , तब उसके हस्तलाघव तथा वीणा की मधुर झंकार से कुछ ही क्षणों में अम्बपाली आत्मविभोर होकर नृत्य करने लगी थीं । वीणा की गति के साथ ही आतर्कित रीति से उनका पद-निपेक्ष भी द्रुत - द्रुततर - द्रुततम होता गया था और अन्त में वह क्षण आया था जब अम्बपाली के रक्त का प्रत्येक बिन्दु वीणा की उस झंकार के साथ उन्मत्त - असंयत हो गया था । उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे उनके अंग से ज्वालामुखी का अग्नि - समुद्र फूट पड़ा है । उससे वह तो विदग्ध नहीं हुईं, किन्तु उन्हें ऐसा भास होने लगा था , मानो वह अग्नि समुद्र विश्व को विदग्ध कर रहा है । तब देवी अम्बपाली ने अपने कुसुम - कोमल गात्र को देवविष्ट पाया था । वह मानो स्वयंभू विराट पुरुष की प्रतिमूर्ति बनीं , प्रलय - काल की महासमुद्र में उठी बाड़वाग्नि की ज्वालाओं के बीच प्रलय के ध्वंस से त्रास पाए नरलोक , धुलोक और सात पाताल के परे परमानन्द, तृप्ति और इन्द्रियातीत आनन्द से भरी, केवल चरण के अंगुष्ठ के एक नख - मात्र पर वसुन्धरा का भार स्थिर कर स्वयं अस्थिर भाव से नाच रही हैं और वह दिव्य गन्धर्व- रूप प्रियदर्शी उदयन विद्युत् - गति से उस महाघ वीणा के तारों पर महामेघ गर्जना के नाद से ब्रह्माण्ड को प्रकम्पित कर रहा है। कैसे वह नृत्य समाप्त हुआ था और कैसे महाराज उदयन उस दिव्य वीणा को लेकर अम्बपाली के उद्यान से सहसा अंतर्धान हो गए थे, यह सब आज अम्बपाली के मानस - चक्षुओं में घूम गया । वह बड़ी देर तक भावमग्न- सी जड़ बनी बैठी रहीं; फिर चैतन्य होने पर उन्होंने अपने पुरुष - वस्त्रों के भीतर वक्षस्थल में धारित महाराज उदयन की प्रदत्ता बड़े- बड़े गुलाबी मोतियों की माला को मोह- सहित स्पर्श किया । वह उस अद्भुत आश्चर्यजनक स्वप्न की - सी घटना को कभी स्वप्न में और कभी जाग्रत ही कितनी ही बार मानस - चक्षुओं से देख चुकी हैं । फिर भी वह अब भी उनकी स्मृति से मोह में पड़ जाती हैं । वह इतना ही समझती हैं कि आगन्तुक पुरुष गन्धर्व - अवतार कौशाम्बीपति महाराज उदयन दिव्य पुरुष हैं ।

आज इतने दिन बाद उसी असाधारण वीणा को यहां एकान्त कुटी में देख और यह जानकर कि यह एकान्तवासी युवक, जो भावुक , चित्रकार, सरल , अतिथिसेवी और दुर्धर्ष योद्धा तथा कठिन कर्मठ होने के अपने प्रमाण कुछ ही क्षणों में दे चुका है, वास्तव में इस महामहिमामयी दिव्य वीणा को भी बजा सकता है और कदाचित् उसी कौशल से , जैसे उस दिन महाराज उदयन ने बजाई थी , इसी से वह मेरा नृत्य भी कराना चाहता है, परन्तु उसकी स्पर्धा तो देखनी चाहिए कि वह मेरे आवास में जाने में अपना मान- भंग मानता है , जहां स्वयं प्रियदर्शी महाराज उदयन ने प्रार्थी होकर नृत्य - याचना की थी ।

कौन है यह लौह पुरुष ? कौन है यह साधारण और असाधारण का मिश्रण , कौन है यह अति सुन्दर, अति भव्य , अति - मधुर , अति कठोर ? यह पौरुष की अक्षुण्ण मूर्ति ! जीवन , प्रगति और विकास का महापुञ्ज ! कैसे वह उनकी अन्तरात्मा में बलात् प्रविष्ट होता जा रहा है ।

अम्बपाली की दृष्टि उसी वीणा पर थी , उन्हें हठात् उस वीणा के मध्य- से एक मुख प्रकट होता - सा प्रतीत हुआ, यह उसी युवक का मुख था । कैसा प्रफुल्ल गौर , कैसा प्रिय , अम्बपाली ने कुछ ऐसी अनुभूति की , जो अब तक उन्हें नहीं हुई थी । अपने हृदय की धड़कन वह स्वयं सनने लगीं । उनका रक्त जैसे तप्त सीसे की भांति खौलने और नसों में घूमने लगा । उनके नेत्रों के सम्मुख शत - सहस्र -लक्ष - कोटि रूपों से वही मुख पृथ्वी, आकाश और वायुमण्डल में व्याप्त हो गया । उस मुख से वज्र - ध्वनि में सहस्र - सहस्र बार ध्वनित होने लगा - “ नाचो अम्बपाली , नाचो, वही नृत्य , वही नृत्य !

और अम्बपाली को अनुभव हुआ है कि कोई दुर्धर्ष विद्युत्धारा उनके कोमल गात में प्रविष्ट हो गई है । वह असंयत होकर उठीं । कब उनके कमनीय कुन्तलों से कृत्रिम पुरुष- वेष लोप हो गया , उन्हें भान नहीं रहा । उन्हें प्रतीत हुआ मानो वही प्रिय युवक उस चौकी पर बैठकर वैसे ही कोशल से वीणा पर तीन ग्रामों से अपना हस्तलाघव प्रकट कर रहा है, उसकी झंकार स्पष्ट उनके कानों में विद्युत्- प्रवाह के साथ प्रविष्ट होने लगी और असंयत , असावधान अवस्था में उनके चरण थिरकने लगे। आप - ही - आप उनकी गति बढ़ने लगी और वह आत्मविस्मृत होकर वही अपार्थिव नृत्य करने लगीं ।

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